Monday, December 16, 2013

जमा पूँजी /कविता

जमा पूँजी /कविता
उम्र की जमा पूँजी ,
मुट्ठी में बंद रेत  की तरह ,
 सरके जा रही ,
मिनट ,घंटा,दिन,महीना ,
साल तक पहुँच रही .....
ये दुखती दास्ताँ
हर किसी के साथ ,
दोहराई जा रही ,……
वाह रे अपनी जहाँ के
भ्रम में फंसे लोग ,
नहीं पसीज रहा जिगर
नफ़रत की खेती बढती जा रही…
टूट -टूट खंड-खंड बिखर गए ,
दबे कुचलो को दंड मिल रहा ,
हाय रे जाति -धर्म की अफीम ,
नशा जालिम कम ही,
 नहीं हो रही………
अपनी जहां वालो ,
हिम्मत करो कह दो अलविदा ,
मानवीय समानता के पथ चल दो
अपनी जहां भ्रम है
पल-पल उम्र की जमा पूँजी ,
सरकती जा रही ,
जाति -भेद नफ़रत की खेती ,
बंद क्यों नही हो रही …………

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com
17 .12 . 2013








डर /कविता
आसपास देखकर डर  हूँ ,
कहीं से कराह कहीं से चीख ,
धमाकों की उठती लपटें देखकर।
इंसानो की बस्ती को जंगल कहना ,
जंगल का अपमान होगा अब
ईंट पत्थरो के महलों में भी ,
इंसानियत नहीं बसती।
मानवता को नोचने,
इज्जत से खेलने लगे है ,
हर मोड़ -मोड़ पर ,
हादशा बढ़ने लगा है।
आदमी आदमखोर लगने लगा है ,
सच कह रहां  हूँ ,
ईंट पत्थरो के जंगल में बस गया हूँ ।
मैं अकेला इस जंगल का साक्षी नहीं हूँ
और भी लोग है ,
कुछ तो अंधा -बहरा गूंगा बन बैठे हैं ,
नहीं जमीर जाग रहा है ,
आदमियत को कराहता देखकर।
यही हाल रहा तो वे खूनी  पंजे
हर गले की नाप ले लेगे धीरे-धीरे ,
खूनी  पंजे हमारी और बढे उससे पहले
शैतानो की शिनाख्त कर बहिष्कृत कर दे ,
दिल से घर -परिसर समाज और देश से।
ऐसा ना हुआ तो
 खूनी पंजे बढ़ते रहेंगे ,
धमाके होते रहेंगे ,
इंसानी काया के चिथड़े उड़ाते रहेंगे ,
तबाही के बादल गरजते रहेंगे ,
इंसानियत तड़पती रहेगी,
नयन बरसते रहेंगे ,
शैतानियत के आतंक  से
नहीं बच पाएंगे ,
छिनता रहेगा
 चैन कांपती रहेगी रूह ,
क्योंकि मरने से नहीं डर लगता
डर लगता तो ,
मौत के तरीको से ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com






तुला/कविता
नागफनी सरीखे उग आये है 
कांटे दूषित माहौल में।
इच्छाये मर रही है नित ,
चुभन से दुखने लगा है
रोम-रोम।
दर्द आदमी का दिया हुआ है ,
चुभन कुव्यवस्थाओं की ,
रिसता जख्म  बन गया है ,
 भीतर ही भीतर।
हकीकत जीने नहीं देती ,
सपनों की उड़ान में जी  रहा हूँ ,
उम्मीद का प्रसून खिल जाए ,
कही अपने ही भीतर से।
डूबती नाव में
सवार होकर भी ,
विश्वास है ,
हादसे से उबर जाने का।
उम्मीद टूटेगी नहीं ,
क्योंकि ,
मन में विश्वास है
फौलाद सा।
टूट जायेगे आडम्बर सारे ,
खिलखिला उठेगी कायनात ,
नहीं चुभेंगे
नागफनी सरीखे कांटे ,
नहीं कराहेगे  रोम-रोम
जब होगा,
अँधेरे से लड़ने का सामर्थ्य
पद और दौलत की तुला पर ,
भले ही दुनिया कहे व्यर्थ। ……
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com






प्रतिकार/ कविता
याद है वो बीते लम्हे मुझे ,
भूख से उठती वो चीखे भी ,
जिसको  रौंद देती थी ,
वो सामंतवादी व्यस्था।
डर जाती थी ,
 मज़दूरो की बस्ती ,
 खौफ में जीता था हर वंचित ,
दरिद्रता बैठ जाती चौखट पर।
काफी अंतराल के बाद
सूर्योदय हुआ ,
दीन बहिष्कृत भी ,
सपनो के बीज बोने लगा।
वक्त ने तमाचा जड़ दिया
हैवानियत के गालों पर ,
दीन  का मौन टूट गया है ,
दीनता का हिसाब मागने लगा है।
आज़ाद हवा के साथ,
कल संवारने की सोच रहा है ,
आज भी गिध्द आँखे  ताक रही है।
तभी तो दीन दीनता से ,
उबर नहीं पा रहा है ,
बुराईयों का जाल टूट नहीं रहा है।
आओ करे प्रतिकार ,
बेबस भूखी आँखों में झाँक कर ,
कर दे संवृध्दि का बीजारोपण।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com





जहर /कविता

खुले है पर,
 हाथ बंधे लग रहे हैं ,
खुली जुबान पर,
ताले जड़े लग रहे हैं।
चाहतों के समन्दर ,
कंकड़ों से   भर रहे हैं ,
खुली आँखों को,
 अँधेरे डस  रहे है।
लूट गयी तकदीर,
 डर  में जी रहे है,
कोरे  सपने ,आंसू बरस रहे हैं।
फैले हाथ नयन शरमा  रहे है ,
चमचमाती मतलब की खंजर ,
बेमौत मर रहे है।
समझता अच्छी तरह,
क्या कह रहे है,
बंधे हाथ,
खुले कान सुन रहे है।
बंदिशों से ,
घिरे वंचित ताक रहे है,
छिन गया सपना,
 कल को देख रहे हैं।
भीड़ भरी दुनिया में,
 अकेले रह गए है ,
अपनो की भीड़ में,
पराये हो गए हैं।
झराझर आंसुओ को,
 कुछ तकदीर कह रहे है ,
आगे बढ़ने वाले ,
पत्थर पर लकीर खींच रहे है।
क्या कहे कुछ लोग ,
खुद की खुदाई पर विहस रहे है ,
कैद तकदीर कर,
जाम टकरा रहे हैं।
दीवाने धुन के ,
जहां आंसू से सींच रहे हैं
उभर जाए कायनात शोषितो की
 उम्मीद में जहर पी रहे हैं।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
दरिद्रनारायण /कविता
मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ ,
जहां खेतिहर मज़दूरों की ,
चौखट पर नाचती है
भय-भूख और दरिद्रता आज भी ,
वंचितो की बस्ती अभिशापित है ,
बस्तियों के कुएं का पानी ,
अपवित्र है आज भी ,
भूखा नंगा ब्मज़दूर ना जाने कब से
हाड फोड़ रहा है
ना मिट रही है भूख ना ही ,
तन ढँक पा रहा है ,
कहने को आज़ादी है पर वो ,
बहुत दूर पड़ा है ,
भूमिहीनता के दलदल में खड़ा है ,
भय से आतंकित ,
कल के बारे में कुछ नहीं जानता
आंसू पोंछता आज़ादी कैसी
वह यह भी नहीं जानता ,
वह जानता है
खेत मालिको के खेत में खून पानी करना
मज़बूरी है उसकी
भूख-भय और पीड़ा से मरना
कब सुख की  बयार बही है ,उसकी बस्ती में
इतिहास भी नहीं बता सकता सही-सही ,
पीड़ित जन भयभीत जातीय बंटवारे की आग से ,
वह भी सपने देखता है ,
दुनिया के और लोगो की तरह
गांव कही धुप में पाक कर ,
उसके सपनो को पंक नहीं लग पाते ,
उसे भी पता लगाने लगा है
दुनिया की  तरक्की का
आदमी के चाँद पर  उतर जाने का भी।
वह नहीं लांघ पा रहा है
मज़बूरी की मज़बूत दीवारे ,
वह दीनता को  ढोते -ढोते  आंसू बोटा हुआ ,
कूंच कर  जा रहा है ,अनजाने लोक को
विरासत में भय-भूख और क़र्ज़ छोड़कर ,
अगला जन्म सुखी हो
डाल देते है परिजन मुंह में गंगाजल
मुक्ति की  आस में ,
दरिद्रनारायण को गुहारकर ,
मैं  भी माथा ठोंक लेता हूँ
पूछता हूँ क्या यही तेरी खुदाई है ....?
क्या इनका कभी  उध्दार होगा … ?
सच मैं ऐसे गांव की माटी में खेला हूँ
जहां अनेकों आँसू पीकर ,
बसर कर रहे है आज भी। ..........
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

एक बरस और /कविता
मान की गोद पिता  के कन्धों ,
गांव की माटी और
 टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडी से होकर,
उतर पड़ा कर्मभूमि में
सपनो की बारात लेकर।
जीवन जंग के रिसते घाव है सबूत
 भावनाओ पर घाव मिल रहे बहुत
संभावनाओ के रथ पर दर्द से ,
कराहता भर रहा उड़ान।
उम्मीदो को मिली ढाठी बिखरे सपने
लेकिन सम्भावना में जीवित है पहचान
नए जख्म से दिल दहलता ,
पुराने से रिस रहे निशाँ।
जातिवाद धर्मवाद उन्माद की धार ,
विनाश की लकीर खींच रही है ,
लकीरो पर चलना कठिन हो गया है ,
उखड़े पांव बंटवारे की लकीरो पर
सद्भावना की तस्वीर बना रहा हूँ।
लकीरो के आक्रोश में ज़िंदगियाँ हुई तबाह ,
कईयों का आज उजड़ गया ,
कल बर्बाद हो गया
ना भभके ज्वाला ना बहे आंसू ,
संभवाना में सद्भावना के ,
शब्द बो रहा हूँ।
अभिशापित बंटवारे का दर्द पी रहा
जातिवाद धर्मवाद की धधकती लू में ,
बिट रहा जीवन का दिन हर नए साल पर,
एक साल का और बूढ़ा हो जाता हूँ ,
अंधियारे में सम्भावना का दीप जलाये
बो रहा हूँ सद्भावना के बीज
सम्भावन है दर्द की खाद और
आंसू से सींच बीज
विराट वृक्ष बनेगे एक दिन,
पक्की सम्भावना है वृक्षो पर लगेगे ,
समानता सदाचार ,सामंजस्य और
आदमियत के फल ,
ख़त्म हो जाएगा धरा से भेद और नफ़रत।
सद्भावना के महायज्ञ में दे रहा हूँ ,
आहु ति जीवन के पल-पल की,
 सम्भावना बस ,
सद्भावना होगी धरा पर जब,
 तब ना भेद गरजेगा ,
ना शोला बरसेगा और ना टूटेंगे सपने
सद्भावना से कुसुमित हो जाए ये धरा ,
सम्भावना बस उखड़े पांव भर रहा उड़ान ,
सर्व कल्याण की कामना के लिए ,
नहीं निहारता पीछे छूटा भयावह विरान।
माँ की तपस्या पिटा का त्याग,
धरती का गौरव रहे अमर ,
विहसते रहे सद्कर्मो के निशान
सम्भावन की उड्डान में कट जाता है
मेरी ज़िन्दगी की एक और बरस
पहली जनवरी को …………।




डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010
email- nlbharatiauthor@gmail.com


जयकार/कविता
बंजर हो गए  नसीब ,
अपनी जहां में ,
बिखरने लगी है आस,
तूफ़ान में
आग के समंदर ,
डूबने का डर है ,
उम्मीद के लौ के ,
बुझने का डर है।
जिन्दा रहने के लये ,
जरुरी है हौशला ,
कैद तकदीर का ,
अधर में है ,फैसला।
खुद को आगे रखने की ,
फिकर है ,
आम-आदमी की नही ,
जिकर है।
आँखे पथराने ,
उम्मीदे थमने लगी है ,
मतलबियो को कराहे भी ,
भाने लगी है।
कैद  तकदीर रिहा ,
नहीं हो पा रही है ,
गुनाह आदमी का ,
सजा किस्मत पा रही है।
बंज़र तकदीर को ,
सफल है बनाना ,
कैद तकदीर की मुक्ति को होगा ,
बीड़ा उठाना।
अगर हो  गया ऐसा तो ,
विहास पडेगा हर आशियाना ,
काल के भाल होगे निशान
जयकार करेगा ज़माना। .......
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

फना /कविता
मैं वंदना करता हूँ ऐसे इंसान की ,
बोटा है बीज जो सद्भावना का ,
रखता है हौशला त्याग का।
मेरा क्या मैं  तो दीवान हूँ ,
इंसानियत का ,
भले ही कोई इल्जाम मढ़ दे
या कहे पाखंडी ,
या दे दे दहकता कोई घाव नया।
निज-स्वार्थ से दूर
पर- पीड़ा से बेचैन इंसान में ,
भगवान् देखता हूँ ,
दूसरों के काम  वालों की,
वन्दना करता हूँ।
साजिशो  से बेखबर ,
सच्चा इंसान खोजता हूँ ,
जानता हूँ हो जाऊँगा फना ,
फिर भी डूबता हूँ
तलाशने पाक सीप ,
हो जिसमे संवेदना ,
उसे माथे चढ़ाना चाहता हूँ।
सच ऐसे लोग ,
परमार्थ के यज्ञ में होकर फना,
देवता बन जाते है ,
ऐसे देवताओ की ,
वंदना करता हूँ।
डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010







मुट्ठी भर आग /कविता
मुट्ठी भर आग से सुलगा दी है ,
अरमानों की बस्ती ,
लड़ रहा है आदमी अभिमान के तेग से ,
आग से उठे धुएं में दब रही हैं चीखें ,
हाथ नहीं बढ़ रहा है कमजोर की और,
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा
अमानुष मान लिया गया है
पसीने के साथ धोखा हो रहा है
और हक़ का चीरहरण भी
मुट्ठी भर आग के अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठ में आग भरने वाले ,
तकदीर का लिखा कहते है
मरते सपने धोने वाले छाल कहते है ,
दंश देने वाले तकदीर बनाने वाले बनते है ,
मुट्ठी भर आग में सुलग रहा आदमी
वंचित हो गया है ,
समानता और आर्थिक समपन्नता से भी।
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग ने बाँट दिया है ,
आदमी को खंड-खंड
मुट्ठी भर आग  भरने वाले गुमान कर रहे है
पीड़ित के मरते सपने और
बिखराव को देखकर
मीठी भर आग में सुलग रहे
आदमी को छोटा मान अत्याचार कर रहे है
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग से उपजा धुंआ
चीर कर पीड़ितों की छाती
दुनिया की नाक के आर-पार होने लगा है
आग में जल रहा शीतलता की बाट  जो रहा
मुट्ठी भर आग ऐसा गहरा और
 बदनुमा दाग छोड़ चुकी है ,
धुलने के सारे प्रयास व्यर्थ होते जा रहे है
अत्याचार बढ़ जाता है सर उठते ही
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।
मुट्ठी भर आग में सुलग रही है
मानवता और बढ़ रहा है उत्पीड़न
मुट्ठी भर आग अर्थात जातिवाद से ,
मुट्ठी भर आग से पीड़ा कहीं आक्रोश बने
उससे पहले चल पड़े समानता की राह
क्योंकि आग छीन रही है सकून ,सद्भावना
बाट रही है नफर
मुट्ठी भर आग अस्तित्व में आते से ही।

डॉ नन्द लाल भारती
आज़ाद दीप -15  एम -वीणा नगर
इंदौर (मध्य प्रदेश)452010

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