Wednesday, June 11, 2014

मिल गया होता/कविता

मिल गया होता/कविता
अपनी जहां तपती-सुलगती रेत  का
विरान लगाने लगा है यारो ,
सच यहाँ गिध्द निगाहें ,ढ़ूढती रहती है ,
जीवित लाशो की बोटियाँ
तड़प -तड़प कर ,
बसर करने को विवश हो गया है
तंग चादर में सिमटा
हाशिये का आदमी,
अपनी जहां में.................
जातिवाद,नफ़रत की धधकती भट्ठी
भ्रष्ट्राचार और बलात्कार ,
यही है गिध्द निगाहें जो ,
खूनी पर सुनहरी चादर से ढकी
नहीं पनपने दे रही है
कर्मवीर-श्रमवीर आदमी को
और कर रही है
मर्यादा पर ख़ूनी  प्रहार
अपनी जहां में.................
नित मरते सपनो का बोझ उठाते ,
कंधे थक रहे है  ,
आँखों पर पर्दा छाने  लगा है
घुटने भी सवाल करने लगे है ,
अपने भी यारो
काश हाशिये के आदमी की
बन गयी होती पहचान
माँ -बहन-बेटियों को
मिल गया होता भरपूर मान
अपनी जहां में.................
डॉ नन्द लाल भारती
5 जून 2014

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