अभिमान ॥
चहरे पर विराजित,
कंस की शान
ह्रदय में उतरा ,
रावण का अभिमान ।
आह की उठती ज्वाला
विष बोता
जब-जब शैतान ,
ये कैसी तरक्की ?
अभिमानी का भगवान ।
जान गया
जग तो सुन्दर
कुसुमित
बुध्द का मान ,
बदमिजाज के माथे
झरती कराह की धार ,
दुःख बढ़ता अदने का
झराझर ,
शैतान का अभिमान ।
हे प्रभो ,
पहले धर वेश
कुचले शैतान ,
अब तो सुन लो
अर्ज़
कब तक दर्द सहेगा
अदना इंसान ।
नन्द लाल भारती॥ २५.०२.२०११
Friday, February 25, 2011
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अच्छी कविता
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