Tuesday, March 8, 2011

नर के वेश में नारायण

नर के वेश में नारायण
बात पर यकीन नहीं होता
आज
आदमी की
नीव डगमगाने लगती है
घात को देखकर
आदमी के ।
बातो में भले
मिश्री घुली लगे
तासिर विष लगती है
आदमी मतलब साधने के लिए
सम्मोहन बोता है ।
हार नहीं मानता
मोह्फांश छोड़ता रहता है
तब-तक जब-तक
मकसद
जीत नहीं लेता है।
आदमी से कैसे बचे
आदमी
बो रहा स्वार्थ जो
सम्मोहित कर लहू तक
पी लेता है वो ।
यकीन की नीव नहीं
टिकती
विश्वाश तनिक जम गया
मनो कुछ गया
या
दिल पर बोझ रख
निकला गया ।
भ्रष्टाचार के तूफ़ान में
मुस्कान
मीठे जहर सा
दर्द चुभता हरदम
वेश्या के मुस्कान के
दंश सा ।
मतलबी आदमी की
तासिर
चैन छीन लेती है
आदमी को आदमी से
बेगाना बना देती है ।
कई बार दर्द पीये है
पर
आदमियत से नाता है
यही विश्वाश अँधेरे में
उजाला बोता है ।
धोखा देने वाला
आदमी
हो नहीं सकता है
दगाबाज आदमी के भेष में
दैत्य बन जाता है ।
पहचान नहीं कर पाते
ठगा जाते है
ये दरिन्दे उजाले में
अँधेरा बो जाते है ।
नेकी की राह
चलने वाले अंधरे में
उजाला बोते है
सच लोग
ऐसे
नर में वेश में
नारायण होते है .....नन्दलाल भारती .......१८.०२.२०११

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