Sunday, September 2, 2012

जी भर रहा है .

जी भर रहा है .
फिर आँखे रो उठी
दिल तड़प उठा
उसको देखकर
आँखों में उसकी
के दीदार थे
दिल में दहकते साक्षात्कार थे
आँखे लबालब थी
किनारे मज़बूत थे
पेट से जैसे
अंतडिया गायब थी
कमर और घुठने बेबस
लग रहे थे
हाथ एकदम तंग था
संघर्षरत मौन बयान
दे गया था
बूढ़ी सामाजिक कुव्यवस्था से
टूट चुका था
दोयम दर्जे का आदमी
कोई और नहीं
हाशिये का आदमी  मूलनिवासी
 शोषित उपेक्षित भूमिहीन खेतिहर मजदूर था
आज भी है ,
अफ़सोस कोई खैरियत
जानने वाला नहीं
दमन, जातीय कुचक्र,भय- भूख
भेद भाव से भयभीत
शोषित आदमी बस जी भर रहा है ...नन्द लाल भारती ०३.०९.2012

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