ग्रामीण भारत महान है...
वो क्या सफ़र था उड़ रहे थे गुब्बार
जवां थे बवंडर धूल के
सपाट कही उबड़-खाबड़ सड़के
कही पहाड़ कही समतल मैदान
तन के जोड़-जोड़ बोल रहे थे
रंग-बिरंगे हाट तो कही मेले लगे थे ।
धोती घुटनों पर अटकी झूल रही थी
घूँघट दो-दो हाथ नीचे लटक रहे थे
हाट-मेले लग रहे थे
तितलियों के झोंके
बस का भोंपू दे देता
खुशिया अनेक
नन्ही परिया चहक उठती
जैसे में तारे अनेक ।
बस की रफ़्तार थामारे,घूँघट उठते
पिया के मिलन की आस में
ठहर जाता होंठ पर
सरसों के खेत का सौन्दर्य
मुस्कान अफीम की तान घोल जाती
मेले-ठेले निहाल खुशिया झराझर
कोताहाई का मौन बयान
तिरस्कार का न भाव था ।
धोती घुटने तक अटकी सुरगादार थीं भले
भरपूर मान था स्वाभिमान था हरा-भरा
घूँघट की ओट स्वर्णिम थी हया
हरे-भरे खेत माथे के ताज लग रहे थे
मौन गाँव का वृतांत कह रहे थे ।
घूँघट से वो बावरी
अफीम की नशा बो रही थीं
ना बसंत पर
हवा में सुगंध उड़ रही थी
क्या सफ़र थे बस का
शामगढ़, भानपुरा,सीतामऊ और पिपलियामंडी
कहीं आधुनिक सड़के तो कही पगडंडी .
जनवरी का अल्हड़पन बौड़म मन मेरा
मैं झूल रहा था बिन मौसम
बसंत की गोंद
मटमैली-फटी धोती,सिर पर पगड़ी का ताज
घूँघट में सभ्यता संस्कृति की धवल हया
मन में उपज रहे थे विचार
कैसा अद्भूत सुख है गाँव की माटी का
जा रहे शहर भागे-भागे
संयुक्त परिवार का सुख बिसार ।
गाँव का सुख स्वर्ग से सुन्दर
अभाव में भी धूल-माटी में खेलते बच्चे
पुस्तक थामे हाथो में बच्चे
आओ स्कूल चले हम के नारे लगते बच्चे
कह रहे थे जैसे
देश का स्वाभिमान है हमसे
हम है तो देश का मान है
ग्रामीण भारत महान है ।
बिछ जाए गाँव धरती पर विकास
कट जाए भूमिहीनता,निर्धनता, अशिक्षा के अभिशाप
पड़े पाँव सच्चे भारतवासी के जहा-जहा
धनिया -सरसों के खेत जैसे उपजे नज़ारे
हमारी रो बस यही पुरानी आस है प्यारे
पूरे सफ़र नयनो से खेले चाँद-सितारे
यही वृतांत है
ग्रामीण भारती का हमारे ................नन्द लाल भारती २१.०१.2011
Saturday, January 29, 2011
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