Monday, January 3, 2011

फतह .

फतह
हार तो मैंने माना नहीं
भले ही कोई मान लिया हो
हारना तो नहीं
फना होना सीख लिया है
जीवन मूल्यों के रास्ते पर ।
बेमौत मरते सपनों के
बोझ तले दबा
कब तक विधवा विलाप करता
बेखबर कर्मपथ पर
अग्रसर
ढूढ़ लिया है
साबित करने का रास्ता ।
ज़माने की बेरहम
आंधिया
ढकेलती है
रौदने के लिए
रौद भी देती
अस्थिपंज़र धुल कणों में बदल जाता
ऐसा हो ना सका
क्योंकि मैंने
ज़मीन सा टिके रहना सीख लिया है ।
आंधिया तो ढकेलती रहती है
रौदने के लिए
ज़मीन से जुड़े रहना
जीत तो है
भले ही कोई हार कह दे
अर्थ की तराजू पर टंगकर
पद-अर्थ का अजान बढ़ाना
जीत नहीं
ज़मीन से जुदा कद बड़ी फतह है ।
घाव पर खार थोपना
मकसद नहीं
आंसू पोछना नियति है
इंसान में भगवान् देखना आदत
जानता हूँ
इंसानियत का पैगाम लेकर
चलने वालो की राह में
कांटे होते है
या दिए जाते है
कंटीली आह पर चले आदमी का
बाकी रहता है निशान
मानवीय एकता का दामन
थाम लिया है
यही तो किया है
कबीर,बुध्द और कई लोग
जो काल के गाल पर विहस रहे है
पाखण्ड और कपट के बवंडर
उठते रहते है
कलम की नोंक स्याही में डुबोये
बढ़ता रहता हूँ
फना के रास्ते।
मान लिया है क्या सच भी तो है
पुवाल की रस्सी
पत्थर काट सकती है
दूब पत्थर की छाती छेदकर
उग सकती है तो
मै देश-धर्म और
बहुजन हिताय की ऑक्सीजन पर
आंधियो में दिया थामे
ज़मीन से जुदा
क्यों
नहीं कर सकता फतह ....?
नन्द लाल भारती ०३.०१.२०११











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