फाग ॥
मुडेरो पर बैठने से
कतराने लगे थे काग।
खींचे-खींचे लोग थे
जैसे
दहक रही हो
आग ।
साथ के लोग अनजान
बन रहे थे ।
ना उठ रहे थे
हाथ
मुंह लटकाए चल रहे थे ।
बूढ़े कुछ पुरानी यांदो को
ताज़ा कर रहे थे ।
परदेसियो के आने की
दास्तान कह रहे थे ।
यकीन ही नहीं हो रहा था
वही गांव ।
कौन सी आंधी कुचल गयी
शीतलता की छांव ।
इतनी दूरी लोग रिश्ते तक
भूल गए।
वही माटी लोग वही
पर
क्या से क्या हो गए ।
सोंधी माटी में बेईमानी
विद्रोह का जाल
बिछ चुका था।
खून की कसम
जज्बात घायल पड़ चुका था ।
दादा-दादी की बात पुरानी
नए खिलखिला रहे थे ।
आपसी बैर की सेंध
घर टूट
लोग फूट चुके थे ।
रिश्ते से बेखबर
स्वार्थ की चिता में
जल रहे थे ।
हड़पने की होड़
कही हक तो कही
दहेज़ पर अड़े थे ।
भूख ,बेरोजगारी का तांडव
लो बिलबिला रहे थे ।
भला चाहने वाले
युवक
चिंतित लग रहे थे ।
जाम की टकराहट से
भयभीत लग रहे थे ।
कुछ पूछ रहे थे
भारती
कब शांत होगी आंधी
कब बैठेगे मुडेरो पर
काग.........
कैसे बचेगा गाँव का
सौंधापन
कब गुजेगा फाग----------------------नन्द लाल भारती
Tuesday, November 30, 2010
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