झरोखे से ॥
दरारों ने जुल्म को
आसुओ से संवार रखा है ,
आशा की परतो को
ज़माने से रोक रखा है ।
कराहटो का आहटो में
धुँआ -धुँआ सा लग रहा है ,
परिंदों में क्रुन्दन
लकीरों पर आदमी मर रहा है ।
आँखों में सैलाब
दिल में दर्द उभरने लगा है ,
आदमी के बीच
सीमाओ का द्वन्द बढ़ने लगा है ।
दिल पर नई-नई
पुरानी खरोचों के
निशान बाकी है ,
खून से नहाई लकीरे
लकीरों की क्या झांकी है ।
जुल्म के आतंक के साये
मन रहा नित मातम ,
बस्तियों से उठ रही चींखे
आदमी ढाह रहा सितम ।
सहमा-सहमा सा कमजोर
चहुओर हुआ धुँआ है छाया
आदमी -आदमी की नब्ज़
नहीं पढ़ पाया ।
भर गयी होती घावे
दिल की दरारे अगर
आदमी खंड -खंड न होता
न हुआ ऐसा मगर ।
चल रहा खुलेआम
जोर का जंग आज भी
लकीरों के निखार
नफ़रत का यही राज भी ।
दिलो को जोड़ देते भारती
स्नेह के झोंको से
छंट जाती आंधिया
बह जाता सोंधापन
दिल के झरोखे से ....नन्द लाल भारती
Wednesday, November 10, 2010
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बहुत ही खूबसूरत रचना है नंद लाल जी । शुभकामनाएं
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