Wednesday, November 3, 2010

मानव धर्मं

मानव-धर्म
तोड़-तोड़ वक्त
तपा रहा खुद को ,
निचोडना हाड संवारना है
जो भविष्य को ।
कैद नसीब की नहीं
हो रही रिहाई आज
इल्जाम पर इल्जाम
सिसकना हर सांझ ।
आसुओ के रंग
परिश्रम की कुंची
खीचना कल का
खाका
आज तो नसीब रूठी ।
अखरता साथ पग
भरना भाता नहीं ,
कचोटती परछाई
उसूल रास आता नहीं ।
आदमी पूरा तालीम पूरी
पर खोटा कहा गया
पैमाईस पर आदमी की
छोटा हो गया ।
बाँझ निगाहे उजड़ गया
आज मेरा ,
बिखरे ख्वाब के मोती
ना हुआ कोंई मेरा ।
नफरतो की बाढ़
कद को
उधार का कहा गया
झरते झरझर मवाद
पर खार छोपा गया ।
विवस तोड़ने को उदेश्य
मानव धर्म हमारा
दर -दर की ठोकरे
बर्बाद हुआ भविष्य हमारा ।
चाहत बड़ी धड़कता दिल
फड़कती आँखे
उफनता विरोध का दरिया
हर कोंई छोटा आंके ।
किस्मत बना हाड फोड़ना
हिस्से पल-पल रोना
ज़माना दे दे जख्म भले
हमें जहर नहीं है बोना ।
जितनी चाहे
अग्नि परीक्षा ले ले
जमाना मेरा
भारती मानव- धर्म
जीवन का सार बन गया है मेरा .....नन्दलाल भारती

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