। जनून ॥
सत्ता कैद में है जिनके
जनून चढ़ा है उनको
हाशिये के आदमी की
बर्बादी का ,
दमन भी हो रहा है
भयावह
वफादारी ,ईमानदारी
कर्म है पूजा का ।
हालात हो गए है
ऐसे
सच मानिये जनाब
बीच समंदर में
फंसी कश्ती में छेद
हो गया हो जैसे ।
इस जहा में
हाशिये के आदमी का
मधुमास
पतझड़ हो गया है
आज ही नहीं जनाब
कल भी
पादप से बिछुड़ा
पत्ता हो गया है ।
नहीं ठहरता अब
यकीन
आज के आदमी पर
बदलता है मुखौटा जो
मतलब -दर-मतलब पर ।
हार रहा है
कर्म सच्चा
आदमियत खुद की
बदनामी पर
आंसू बहा रही है
हाशिये के आदमी की
किस्मत
रुढिवादिता
और
रिश्वत डंस रही है
जनाब हाल
तो अब
और
भयावह हो रहे है
तरक्की
परिवारवाद ,भेदभाव की
चौखट पर
नृत्य कर रही है ।
सच जनाब
हाशिये के आदमी का
भविष्य
बीच समंदर में फंसी
कश्ती के छेद सा हो गया है
बच गया तो हिम्मत है
उसकी
नहीं तो बर्बादी का
उनको
जनून तो चढ़ा है। नन्दलाल भारती-- ३१.१०.२०१०
Sunday, October 31, 2010
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अच्छी कविता।
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