उद्देश्य ॥
मै मुस्करा -मुस्करा
नहीं थकता ,
पास होती कनक की
मादकता ।
बंदिशों में जकड़ा
मुस्करा पता नहीं
विषमता की
गंध सांस
भर पता नहीं ।
कठिन मेहनत
तरक्कियो से दूर
पटका गया ,
दिल पर दहकते
घाव का
निशान बन गया।
मन भेद की खाई
सनाराते देखे गए
लोग,
शाजिसे रचते
नित
नयी-नयी है लोग ।
भीड़ भरी दुनिया में
रुसुवईयो को झेला
परायी दुनिया
यहाँ तो लगा है
स्वार्थ का मेला ।
चाँद सितारे तोड़ने की
ललक
सदा लगी रही
खुले द्वार
तरक्कियो बस
जव़ा मकसद यही ।
नासूर सा जख्म
एकता का भाव
मन में ,
कुचल गयी आशा
तबाह
भविष्य इस जहा में ।
अच्छी दिनों की आस
बढती उम्र की बूढी सांस
दया धर्म-सदभाव की
पूरी हो जाती आस ।
निःसंदेह मेरे जीवन का
उदेश्य
सफल हो जाता
परायी दुनिया
पराये लोगो के बीच
मै
मुस्करा जाता .....नन्दलाल भारती
Saturday, October 30, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
bahut achchhi prastuti
ReplyDelete