ज़ंजीर ॥
पाँव जमे भी ना थे
जहा में
पहरे लग गए
ख्वाबो पर
पाँव जकड गए
ज़ंजीरो में
गुनाह क्या है
सुन लो प्यारे ...
आदमी होकर
आदमी
ना माना गया
जाति के नाम से
जाना गया
यही है
शिनाख्त बर्बादी की
मेरे और मेरे देश की
नाज़ है भरपूर
देश और देश की
मांटी पर
एतराज है भयावह
जातिभेद के बंटवारे की
लाठी पर
आजाद देश में
सिसकता हुआ
जीवन
कैसे कबूल हो प्यारे .....
आदमी हूँ
आदमी मनवाने के लिए
जंग उसूल नहीं हमारे
बुध्द का पैगाम
कण-कण में जीवित
नर से नारायण का
सन्देश सुनाता
दुर्भाग्य या साजिश
आदमी...
आदमी नहीं होता ॥
यही दर्द जानलेवा
पाँव की ज़ंजीर भी
डाल दिए है
जिसने नसीब पर ताले
लगे है शादियों से
ख्वाब पर पहरे
अब तोड़ दे
भेद की जंजीरे
मानवीय समानता की कसम खा ले
आजाद देश में ,
आदमी को छाती से लगा ले.......नन्दलाल भारती॥ ११.१०.२०१०
Tuesday, October 12, 2010
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