Thursday, October 14, 2010

वजूद

वजूद
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
रिसते घाव
छलकते आंसू
पेट की भूख
और
भेद का दंश भी ।
अफ़सोस
भेद की दीवार को
मज़बूत करने वाले लोग
कुछ भूलना ही
नहीं चाहते
कुरेदते रहते है
पुराने घाव ।
मै हूँ कि
सब कुछ भूल जाना
चाहता हूँ
दिल में
दफ़न प्यास के लिए ।
मेरा प्रयास निरर्थक
लगने लगा है जैसे .
हर तरफ धुँआ
पसरने लगा है ।
अथक प्रयास के बाद भी
नहीं जीत पा रहा हूँ
भेद का समर।
आहत हो गया है
मेरा सब कुछ ,
भूत भविष्य
और वर्तमान भी।
मौन संघर्षरत हूँ
फिर भी
भारती
उजले वजूद के लिए .....नन्द लाल भारती

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