Saturday, October 28, 2017

कविताएं

जिन्दगी हर पल इम्तिहान  ले रही है
अपनी जहां रंज सी हो रही है
सोचा था बगिया मे 
बहार आएगी
सींचे थे बड़े जतन से
ना सोचा कभी अपनी जहां
बैरी हो जाएगी
खुली आंखों मे बसे सपने
अफसाने हो रहे
मायानगरी, अपने भी
बेगाने हो रहे
ना जाने किस गुनाह की सजा
ये अपनी जहां वालो खुश रहना
भले ही अपने
सपनों की बारात लूट रही है
जिन्दगी पल पल इम्तिहान ले रही है।
डॉ नन्दलाल भारती
12/10/2017







अजीब जिन्दगी के मायने हैं
समझने पर भी समझ से दूर
निकल जाते हैं
उम्मीद को वक्त के बवंडर
छिन ले जाते हैं
पस्त हो जाते हैं अरमान
हौशले बिखर जाते हैं
जिन्दगी के मोढ पर अपने भी
गैर हो जाते है
कोई आंसू देता है कोई शूल
कोई विष बीज बो जाता है
अजीब हैं जिन्दगी के मायने
जीने के बहाने मिल जाते हैं।
डॉ नन्दलाल भारती
24/09/2017








।।।।।। कैसी मजबूरी।।।।।
ये कैसी सल्तनत है
जहां शोषितों को आंसू
अमीरों को रत्न धन मोती,
मिलते हैं,
शोषितो के नसीब दुर्भाग्य
बसते हैं
पीडित को दण्ड शोषक को
बख्शीश क्या इसी को
आधुनिक सल्तनत कहते हैं
ये कैसी सल्तनत है
जहाँ अछूत बसते हैं........
दर्द की आंधी जीवन संघर्ष
अत्याचारी को संरक्षण
निरापद को दण्ड यहां
हाय. रे बदनसीबी
जातिवाद, अत्याचार,चीर हरण
हक पर अतिक्रमण, छाती पर
अन्याय की दहकती अग्नि
विष पीकर भी देश महान
कहते हैं
ये कौन सी सल्तनत मे
सांस भरते हैं.....................
श्रमवीर,कर्मठ, हाशिये के लोग
अभाव,दुख,दर्द मे जी रहे
खूंटी पर टंगता हल, 
हलधर सूली पर झूल रहे
महंगाई की फुफकार 
आमजन सहमे सहमे जी रहे
अभिव्यक्ति की आजादी लहूलुहान
कलम के सिपाही मारे जा रहे
चहुंओर से सवाल उठ रहे
कैसी सल्तनत ,लोग
भय आतंक के साये मे जी रहे......
बढ रहा है खौफ़ निरन्तर 
जातिवाद का भय भारी
जातिविहीन मानवतावादी 
समाज की कोई ले नहीँ रहा जिम्मेदारी
जातिवादी तलवार पर सल्तनत है प्यारी
इक्कीसवीं सदी का युग पर,
छूआछूत ऊंच नीच का आदिम युग है जारी
इक्कीसवीं सदी समतावादी विकास का युग
जातिवाद रहित जीवन जीने का युग
हाय रे सल्तनत तरक्की से दूर
जातिवाद का बोझ ढो रहे
हम कौन सी सल्तनत मे
जीने को मजबूर हो रहे........।
हाय रे सल्तनत बस मिथ्या
शेखी
कभी, बाल विवाह, गरीबी, शिक्षा के
दिन पर गिरते स्तर,बेरोजगारी,स्वास्थ्य
जातीय उत्पीडन,घटती कृषि भूमि
घटती खेती किसानों की मौत पर
सामाजिक जागरण या कोई बहस देखी
अपनी जहाँ वालों आधुनिक सल्तनत
हमसे है हम सल्तनत से नही
ऐसी क्या मजबूरी है कि मौन
सब कुछ सह रहे
सल्तनत कि जय जयकार कर रहे...........
डॉ नन्दलाल भारती
17/09/2017

कैसा शहर(कविता)
ये कैसा शहर है बरखुरदार
ना रीति ना प्रीति
धोखा, छल फरेब,षड़यंत्र
ये कैसे लोग कैसा तन्त्र
मौत के इन्तजाम, छाती पर प्रहार
ये कैसा शहर है बरखुरदार......
ये कैसा शहर,आग का समंदर
डंसता घडिय़ाली व्यवहार
पारगमन की आड़ मे अश्रुधार
रिश्ते की प्यास , जड मे जहर
हाय रे  पीठ मे भोकता खंजर
पुष्प की आड़ ,नागफनी का प्रहार
ये कैसे लोग हैं बरखुरदार...........
मन मे पसरा बंजर ,तपती बसंत बयार
जश्न के नाम करते घाव का व्यापार
छल स्वार्थ के चबूतरे ,दिखावे के जश्न
जग हंसता,चक्रव्यूह मे रिश्ते वाले प्रश्न
छल,भय,जादू से ना जुड़ सकती प्रीत
ना कर अभिमान, ना पक्की जीत
धोखे से असि का ना कर प्रहार
बदनाम हो जाओगे बरखुरदार......
ना लूट सपनों की टकसाल
ना कर मर्यादा पर वार
तेरा भी लूट जायेगा एक दिन संसार
आंसू दिये जो , मिलेगा तुम्हें गुना हजार
कैसे मानुष जिह्वा पर विष,मन मे कटार
युग बदला तुम ना बदले कैसे तुम, कैसा शहर ?
कैसी रीति कैसी प्रीति कैसा लोकाचार
रिश्ते को ना करो बदनाम बरखुरदार.......
डॉ नन्दलाल भारती
16/09/2017








हमारी फिक्र ना किया करना
 फिक्र मे हमारी ना वक्त जाया करना,
तुम अपने  सपनों को पूरा करना
हां फर्ज़ को भी ना विस्मृत करना
तुम हमारी खबर भी नहीँ लोगे
सच मानो हमे कोई अफसोस
नहीं होगा
गर कोई खबर होगी हमारी तो
तुम तक पहुंच ही जाएगी
तुम खुद को परेशां ना करना
हम तो गैर हैं बरखूरदार
हमारी खबर लेकर क्या करना ?????
इतना एहसान जरूर करना
वक्त मिल जाये गर तो
अपनी खबर जरूर दे दिया करना ।।।।।।
डॉ नन्दलाल भारती
15/09/2017

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