Friday, October 27, 2017

कविता : दलित


दलित क्या है जानते हो ?

हाँ क्यों नहीं,

सरकारी दमाद है दलित......

नहीं नहीं गलत समझ रहे

दलित मतलब होता है दर्द

पुराने जख्म से झरता दर्द

दलित नहीं जानता कौन मुसीबत

कब बरस पड़े.....

कब कोई दबंग थेसर मे पीस दे

कब कोई सडक़ पर नंगा कर दे

कब दलित मां बहन को

कौन अमानुष बेआबरू कर दे

कब कोई हको पर कब्जा कर ले

कैद नसीब का मालिक निरापद

दलित नहीं जानता........

वह जानता है तो देश पर कुर्बान होना

देश की मांटी तो पुरखों की माटी है

दलित के लिए

दलित अनुरागी  दर्द मे जी रहा है

अपनी धरती आसमान की आशा मे

कैद मुकदर के दर्द का विषपान कर.....

दलित का दर्द जश्न बन जाता है

धर्म और सत्ता की चौपड़ पर

सत्ता से उठा तनिक शोर तनिक भर मे

मौन हो जाता है

धर्म से उठा शोर खड़ा कर देता है

फजीहत......

दलित के हाथ लगता है तो

मरते सपनों का बोझ

सिमटती दुनिया मे नहीं बदल रही

तथाकथित उंचों की सोच.....

दलित आरक्षित नहीं तनिक संरक्षित है

आरक्षित तो वे हैं

जो सर्वश्रेष्ठता नकाब ओढे

लूट रहे हैं पोथी का भय दिखाकर

दान- धर्म के नाम पर गुमराह कर......

पसीना बहाता है, सृजन हाथोँ मे रखता है

भय भूख मे रहता है

निरापद को जातीय विषधर,

दलित कहता है....

दलित दहकता सुलगता, भभकता

दर्द होता है

दलित का दर्द सर्वश्रेष्ठता का मुखौटा

लगाए लोग कैसे समझ सकते हैं ?

दलित दर्द मे जीने का नाम है

लहू को पानी बनाकर

अपनी जहाँ सींचने का नाम है दलित

हाशिये पर सदियों से पडा है दलित

हाड़फोड़कर भूख मिटा लेता है दलित

अपनी जहां मे सम्मान का

 भूखा है दलित।

डॉ नन्दलाल भारती

27/10/2017

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