Monday, October 30, 2017

झोला


झोला/कविता
एक अपने भी सपनों का झोला है,
जो सदियों से लटका है गले में
वाह रे अपना झोला
कभी सुर्खियां ही नहीं बन पाया
बने भी तो कैसे ?
झोले में है भी क्या ?
पुरखों की लूटी सत्त्ता का दर्द
कैद नसीब,आदमी होकर
आदमी होने के सुख से वंचित होने की
सदियों पुरानी पीड़ा
भूमिहीनता, गरीबी,संघर्ष,
नित विष पीकर जीने का दर्द
भला ये सुर्खियां बटोरने के औजार
कैसे हो सकते हैं ?
हाँ सुर्खियां मिलती खूब
जब अपने झोले में 
प्रशासन की डोर होती
धर्म सत्त्ता की बागडोर होती
तब ना ?????????
यही मेरे झोले में नहीं हैं
दर्द,कराह, फ़ांस, आस के साथ
एक जीवित शरीर है जो
झोले को गले में टांगे
सदियों से अविराम
जीवन की कटीली राह पर है
उम्मीद के साथ कि
अपने और अपनों के दर्द से 
लबालब भरे झोले पर 
कभी सत्त्ता की नज़र पड़ेगी क्या
मुक्ति के लिए ?
डॉ नन्द लाल भारती

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