Tuesday, July 13, 2010

जश्न
मुस्कराने की लालसा लिए
दर-दर भटक रहा हूँ।
हाल ए दिल
बयां करने को ,
तरस रहा हूँ।
दर्द आंकने वाला
नहीं मिल रहा कोई ।
दर्द नाशक के बहाने ,
रची जाती
साजिशे
कोई ना कोई ।
यहाँ रात के अँधेरे में
अट्टहास करता
डर है ।
दिन के उजाले में
बसा खौफ है ।
रक्त रंजित
दुनिया के आदी हो रहे ।
कही आदमी तो कही
आदमियत के
क़त्ल हो रहे।
दर्द के पहाड़ तले
दबा खाहिशो को
हवा दे रहा ।
आतंक से सहमा भारती
सर्द कोहरे से
छन रही धुप का
जश्न
मनाने से
डर रहा ....नन्दलाल भारती १३.०७.२०१०

1 comment:

  1. आतंक से सहमा भारती
    सर्द कोहरे से
    छन रही धुप का
    जश्न
    मनाने से
    डर रहा

    बहुत संवेदनशील

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