आदत सी हो गयी है ।
भेद भरी इस ज़हा की
खा-खाकर ठोकरे
अब तो सीने में ,
दर्द लेकर जीने की
आदत सी हो गयी है ।
बेदर्द लोग थोपते है
दर्द बेख़ौफ़
छल-बल ,झूठ -फरेब की,
थामे तलवार
दुनिया की चकाचौध
हासिल कर चुके बेरहम लोग
खुद को खुदा मानने लगे है ।
देखकर जालिमो की साजिशे
इंसानियत को शर्म आने लगी है
खुदगर्ज़ पल-पल चेहरा
बदलने लगा है ।
कौन तौले आंसू दर्द का
आदमियत के दुश्मन
विहसने लगे है
मौके-बेमौके आँखे भर आई है
सच कहता हूँ
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
दमन के बवंडर जब उठते है
शोषितों के नसीब की बलि
लेकर थमते है ।
रूह कॉप जाती है
ईमान बेपरदा हो जाता है
कर्मशीलता पर हो जाता है
वज्रपात ।
वंचित की बस्ती में
कायम रहती है
भय-भूख और कराह
देखा है पास से
पीया है आंसू भी
कई-कई राते नीद
नहीं आई है
कसम से
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत हो गयी है ।
छिनने की हवश
ऊंचे लोगो के नीचेपन को
हमने आँका है
दमन का बह चला है दरिया
लूट रहे हक़ , बाँट रहे दर्द
वंचितों की नसीब
कैद हो गयी है
सच कह रहा हूँ यारो
अब तो सीने में दर्द लेकर
जीने की आदत सी हो गयी है ।
नन्दलाल भारती-- ०८-०७-२०१०
Thursday, July 8, 2010
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सच को उजागर करती अच्छी रचना
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