पत्थर के घर ॥
भान नहीं कौन
क्या ?
गुन रहा होगा
उल्लास की बयार से,
दिल विहस रहा होगा ।
खुदा की पौध के फूल है सब
पर हर को
खुशबू नहीं देता ।
जमाने के भीड़ में
कभी-कभी
कोई देवता रूप
धर लेता ।
खोजती आँखे ,
कोई मेहदी सा
रंग
नहीं छोड़ता ।
उत्सवी बाज़ार तो है
पर
अपनापन नहीं होता ।
उम्मीद का दरिया
खुद में
डूबने लगा है।
आदमी की भीड़ में
आदमी
अकेला लगाने लगा है ।
ढह रहे दरख
हर ओर
छाव कहा होगी ।
बाजारवाद की रस्मो में ,
सोधेपन की बात,
कहा होगी ?
बदलते अक्त में
नेकी का भाव गिर रहा ।
आदमी आज
खुद
खुदा बन रहा।
बिकाऊ है
सब कुछ पर
संतोष
नहीं बिक रहा ।
बूढी होती
सास को
उम्र का इंतजाम
नहीं हो रहा ।
महकती रहे
कायनात,
दुआ है हमारी ।
ना चुभे कांटे कोई ,
स्वर्ग सी हो
हरा हमारी ।
भारती धुल की ना उठे
आंधी,
महक उठे फुलवारी
पत्थरो के घर से
उठे बसंत
कामना है हमारी ...नन्दलाल भारती॥ १५.०७.२०१०
Thursday, July 15, 2010
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वाह वाह, आपकी इस सुंदर कामना में हम भी साथ हैं ।
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