Tuesday, July 13, 2010

तलाश

तलाश
कविता की तलाश में
फिरता हूँ
खेत-खलिहान
बरगद की छाव
पोखर तालाब बूढ़े कुए
सामाजिक पतन,
भूख-बेरोजगारी में
झाकता हूँ।
मन की दूरी
आदमी की मजबूरी में
ताकता हूँ ।
तलाशता हूँ
कविता
कड़ी और खाकी में ।
दहेज़ की जलन
अम्बर अर्ध्बदन
अत्याचार के आतंक में ।
मूक पशुओ के क्रुन्दन
आदमी के मर्दन में ।
ऊँचे पहाड़ो ,
नीचे समतल मैदानों में ।
कहा-कहा नहीं
तलाशता कविता को ।
खुद के अन्दर
गहराई में
उतरता हूँ
कविता को
खिलखिलाता हुआ पता हूँ ।
सच भारती
यही तो है
वह गहराई
जहा से उपजती है
कविता
दिल की गहराई
आत्मा की ऊंचाई से । नन्द लाल भारती ॥ १3.०७.२०१०

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