Thursday, September 2, 2010

फ़कीर

फ़कीर॥
मानता हूँ
अपनो की भीड़ में
अज़नवी
हो गया हूँ
दर-दर की ठोकरे ,
बंद गली का
आदमी हो गया हूँ
वाद के भीड़ में
तरक्की के दरवाजे
अदनो के लिए
बंद है
माया की बाज़ार में
आदमी,आदमी में
अंतर्द्वंद है
धोखा फरेब आदमी को बाटने
वाला आदमी
अक्लमंद है
माया की बाज़ार में
हार में हार नहीं है
आदमी के बीच
रार ही सच मायने में
मेरी हार है
मुझे गम नहीं है
अपनी तार-तार नसीब का
सकूं से जीने नहीं देता
गम दरार का
खेलकर खून तोड़कर यकीन
नहीं चाहता
तरक्किया
मेरा इतना सा
ख्वाब है
खुली रहे मन की
खिरकिया
जीवित भीड़ में
गुहार कर थकने
कागा हूँ
आँख खुली तभी से
काँटों की नूक पर चल रहा हूँ।
एक चाह है भारती
पत्थर दिलो पर
एक लकीर खिंच दू
दरारों की द्वन्द से
भले ही फ़कीर रहू...............नन्दलाल भारती ... ०२.०९.२०१०

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