उम्र ॥
वक्त के बहाव में
ख़त्म हो रही है
उम्र ,
बहाव चट
कर जाता है
हर एक जनवरी को
जीवन का एक और बसंत।
बची खुची बसंत की सुबह
झरती रहती है
तरुण कामनाये ।
कामनाओ के
झरझर के आगे
पसर जाता है
मौन,
खोजता हूँ
बीते संघर्ष के क्षणों में
तनिक सुख।
समय है
कि
थमता ही नहीं
गुजर जाता है दिन ।
करवटों में गुजर जाती है
राते
नाकामयाबी कि गोद में
खेलते-खेलते
हो जाती है सुबह
कष्टों में भी दुबकी रहती है
सम्भावनाये ।
उम्र के बसंत पर
आत्ममंथन कि रस्साकसी में
थम जाता है समय
टूट जाती है
उम्र कि बढ़ाये
बेमानी लगाने लगता है
समय का प्रवाह
और
डसने लगते है
जमाने के दिए घाव
संभावनाओ कि गोद में
अठखेलिया करता
मन अकुलाता है
रोज-रोज कम होती
उम्र में
तोड़ने को बुराईयो का
चक्रव्यूह
छूने को तरक्की के
आकाश ...नन्दलाल भारती॥ १२.०९.२०१०
Sunday, September 12, 2010
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बहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteराष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश कि शीघ्र उन्नत्ति के लिए आवश्यक है।
एक वचन लेना ही होगा!, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वारूप की प्रस्तुति, पधारें