Wednesday, September 8, 2010

देखा है

देखा है
इसी शहर में
बेगुनाह की
अर्थी
उठते हुए देखा है ,
उन्माद की आग में ,
आशियाना
जलते हुए देखा है ।
आदमी को आदमी का खून,
बहाते हुए देखा है .
इसी शहर में
देवालय के द्वार
क़त्ल होते हुए देखा है ,
बेरोजगारी की उमस में
हड़ताल होते हुए
देखा है ।
न्याय की पुकार में
अन्याय
होते हुए
हमने देखा है ।
अपनो को माया की ओट
बैर
लेते देखा है ।
इसी शहर में
रिश्तो की तड़पते हुए
देखा है ।
दीन के आंसू पर
लोगो को
मुस्कराते हुए देखा है ।
मद की ज्वाला में
गरीब को
तबाह करते हुए देखा है ।
इसी शहर में
कमज़ोर को
बिलखते
हुए देखा है ।
श्रम की मंडी में
भेद की आग लगते हुए
देखा है ।
भेदभाव की खंज़र से
आदमियत का
क़त्ल
होते हुए देखा है ।
दम्भियो को
दीन के अरमानो को
रौदते हुए
देखा है ।
सफ़ेद की छाव
बहुत कुछ
काला होते हुए
हमने देखा है ।
शहर की चकाचौंध में
दीनो के घर
उजड़ते हुए देखा है।
शूलो की राह
जीवन होता तबाह
भारती
हमने देखा है ।
इसी शहर में
हर जुल्म जैसे
खुद पर
होते हुए
हमने देखा है .....नन्दलाल भारती ०८.०९-२०१०

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