Sunday, September 5, 2010

रिसाव..

रिसाव
रिश्तो का अथाह
दरिया रिस रहा,
अफ़सोस
कुछ भी नज़र
नहीं आ रहा ।
धीरे-धीरे दरिया
भी खाली हो जाता है ,
शेष
बेकार रह जाता है ।
धरती में दरार
पड़ जाती है ,
दिलो में
गाठे भी
हो जाती है।
जाने लोग
अनजान हो रहे है ।
रिश्ते मोम की तरह
पिघल
रहे है ।
आकाश की बाहों में सूरज
रोज टंग जाता है ,
चाँद भी
खुद के वसूल
पर
खरा नज़र आता है ।
कुछ तो
नहीं बदल रहा
ये आदमी
जरुर बदल रहा।
आदमी ये
ढेर चूक कर गया है ।
भनक तक
जैसे नहीं पाया है।
आधुनिकता के जाल में
फंस गया है ,
अकेलेपन के दलदल में
धंस गया है .
बहुत कुछ
चूक कर रहा
आज भी ,
भूल गया
रिश्तो का स्वाद भी ।
रिश्तो का
आशियाना
रिस रहा
कोई उपाय नहीं
सूझ रहा
भारती
कौन सा गम
रोक सकेगा
रिश्तो के रिसा को ..............नन्दलाल भारती ...०५.०९.१०

5 comments:

  1. बहुत खूबसूरत रचना ...रिश्तों के रिसाव को कौन सा गम रोक सकेगा ?

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  2. आदरणीय नन्दलाल भारती जी
    नमस्कार !
    रिश्तो के रिसाव को ले'कर आपकी चिंता वाजिब है , लेकिन उपाय नहीं ।

    धरती में दरार
    पड़ जाती है ,
    दिलो में
    गाठे भी
    हो जाती है।
    जाने लोग
    अनजान हो रहे है ।
    रिश्ते मोम की तरह
    पिघल
    रहे है ।


    बहुत मार्मिक !!

    एक बात जानना चाह रहा था , क्या आप आकाशवाणी की वही विराट हस्ती नन्दलाल भारती ही हैं , जिन्हें मैं अपने बचपन में अक्सर सुना करता था ?

    शुभकामनाओं सहित …
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  3. ये सच है आधुनिक दौर में रिश्ते रिस रहे हैं सिकुड रहे हैं .... गहन चिंतन है इस रचना में ...

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  4. http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/270.html

    apani post yahan bhi dekhen ..

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