तराना ॥
ये दिशाए
भी
कर रही
शिकायत
धुल के अंधेरो में ।
घुटने लगा है
दम
बेख़ौफ़ सास लेने में ।
बुराईयों का
बेशर्म दौर है
आज
जमाने में ।
मर्यादा थरथर्रार रही
जैसे
गाय कट रही
कसाईखाने में ।
कमजोर की लूट रही
आबरू
आज जमाने में ।
डर-डर के दिन
काट रहा
पडा हो कत्लखाने में ।
मांग रहा भीख
जो
लगा था
कल बनाने में ।
निति की निकल रहा
जनाजा
स्वार्थ के आशियाने में ।
सूरज तड़प
चाँद तरस
रहा
आज के मयखाने में ।
सद्बुध्दी का यज्ञ
वक्त लगा मुंह
छिपाने में ।
विध्वंस का ज्वर
अमानुषता की हवस
हाईटेक जमाने में ।
जकड दो बुराईयों को
भारती
गूँज उठे
ख़ुशी के तराने
हर आशियाने में ..नन्दलाल भारती..०४.०९.२०१०
Saturday, September 4, 2010
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अच्छी अभिव्यक्ति ..
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