जन्नत-ए-धरती ॥
सोंधी माटी की सुगन्ध,
भिन्नती तन-मन
झरती पहली
किरण
जहा
वह अपना गाव ।
खेत से नहाकर
आती
सोंधी बयार
पेड़ से कोयल की
कू-कू
उड़ेलती रसधार ।
गेहू की क्या
मौज मस्ती
सरसों का खेत
निराला बसंती रंग
तितलियों का
झुण्ड
दिवाली-होली का रंग।
गन्ने का घुलता
रस
मिश्री हुआ संसार ।
पानी में खड़ा
धान करे
ललकार ।
हर खेत उगले
सोना
ऐसा अपना गाव
नर से नर का प्रेम
निश्छल
मीठी वाणी
महुवे की छाव ।
उसर क्या बंज़र ],
खेत ना कोइ परती
सच
गाव अपना
जन्नत-ए-धरती ।
हाद्फोड़ मेहनत
का नतीजा
धन्य वो महान,
चीर धरती निकाले
सोना किसान
भगवान्।
अफ़सोस खोती ग्रामीण
कला
सपना हुआ
पुरवे का पानी ,
बढ़ती जनसंख्या
घटता रोजगार
किसकी बेईमानी ,
ना खोये
गाव
ना हो पुराने
साधनों का
लोप भारती
विहसे सदा
माटी का सोंधापन
बना रहे
अपना गाव
जन्नत-ए-धरती । नन्दलाल भारती .... ०१.०९.२०१०
Wednesday, September 1, 2010
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आप की रचना 03 सितम्बर, शुक्रवार के चर्चा मंच के लिए ली जा रही है, कृप्या नीचे दिए लिंक पर आ कर अपनी टिप्पणियाँ और सुझाव देकर हमें अनुगृहीत करें.
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/2010/09/266.html
आभार
अनामिका
बहुत अच्छी ,सुंदर रचना ।
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