Saturday, September 18, 2010

वक्त के कैनवास पर

वक्त के कैनवास पर
छांव को छांव मान लेना
भूल हो गयी ,
परछईया भी रूप
बदलने लगी है
दाव पाते कलेजा चोंथ
लेती है
कहा खोजे छाँव
अब तो
छांव भी आग उगलने लगी है ।
छांव की नियति में
बदलाव आ गया है
वह भी शीतलता देती है
पहचानकर
छांव में अरमानो का
जनाजा सजने लगा है
क़त्ल का पैगाम मिलाने लगा है ।
मुश्किल से कट रहे
बसंत के दिन
शामियाने से मातम
फुफकारने लगा है
उम्र की भोर में
शाम
पसारने लगी है ।
तमन्ना थी
विहान होगा
सजेगे सितारे
कलयुग में नसीब तड़पने लगा है ।
मधुमास को मलमास
डंसने लगा है
नहीं तरकीब कोई
चाँद पाने के लिए
उम्र गुजर रही
सद्कर्म की राह पर
बहुरूपिये छांव ने
दागा है किये
वेश्या के प्यार की तरह
आमी छांव की आड़
धुप बोने लगा है
खौफ खाने लगा है
ना विदा हो जाऊ जहा से
छांव से सुलगता हुआ
सपनों की बारात लिए
ऐसा कैसे होगा .............?
भले जमाना न सुने फरियाद
फ़रियाद करूंगा
कलम से
वक्त के कैनवास पर
लिखूंगा बेगुनाही की दास्ताँ
भले क़त्ल कर दिए जाए सपने
मै संभावना में
कर लूँगा बसर
कलम थामे कल के लिए ............नन्दला भारती ......१८.०९.२०१०

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