सुगंध ॥
जमीन पर आते ही बंधी
मुट्ठिया खिंच जाती है ,
रोते ही ढोलक की थाप पर
सोहर गूंज जाता है ।
जमीन पर आते ही
तांडव नजर आता है,
समझ आते ही
मौत का डर बैठ जाता है ।
मौत भी जुटी रहती है
अपने मकसद में ,
आदमी को रखती है
भय में ।
सपने में भी
डरती रहती है
ज़िन्दगी के हर मोड़ पर
मुंह बाए कड़ी रहती है ।
परछाइयो से भी चलती है
आगे-आगे
आदमी भी कहा कम
चाहता निकल जाए आगे ।
भूल जाता आदमी
तन किराये का घर
रुतबे कि आग में
कमजोर को भुजता जाता
मानव कल्याण में जुटा नर,
नर से नारायण हो जाता ।
मौत जन्म से सात लगी
पीछे पड़ी रहती है
सांस को शांत करके ही रहती है ।
सबने जान लिया पहचान लिया
जीवन का अंत होता है
ना पदों जातिधर्म के चक्रव्यूह
बो दो सद्कर्म
और
सद्भावना कि सुगंध
आदमी अमर
इसी से होता है.................नन्दलाल भारती ... १६.०९.२०१०
॥ हिंदी है तो hai हम ,हिंदी पर प्रहार देगा गम ही गम ॥
Thursday, September 16, 2010
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बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteमशीन अनुवाद का विस्तार!, “राजभाषा हिन्दी” पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें