Monday, August 9, 2010

दीन

दीन
मेरी किस्मत को
क्यों ?
दोष दे रहा जमाना ।
याद नहीं जमाने को
हक़ हज़म कर जाना ।
साजिश का हिस्सा
है मेरी मजबूरिया ।
पी लेता हूँ
ये विष कस लेता हूँ
तनहईया ।
रार नहीं ठानता
मई
खैरात चाहता ही नहीं ,
हाड को निचोड़कर
दम भर लेता हूँ तभी ।
हाड खुद का
निचोडना आता नहीं
सच
तब ये दुनिया वाले
जीने देते नहीं ।
सरेआम सौदा होता
जहा चाहते बेचते
वही ।
खुदा का शुक्र
मजदूर
होकर रह गए ।
खुद ना बिक़े
श्रम बेचकर
जी गए ।
जमाने से रंज
नहीं तो फक्र कैसा?
जमाने की चकाचौध में
भारती जी लेता हूँ
दीन होकर भी
दीनदयाल जैसा ........नन्दलाल भारती ०९.०८.२०१०

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