नारी ॥
नारी तुम बुनती हो
नित ने सपने ,
करती हो
साकार हितार्थ बस
ना
अपने ।
चाहती हो
बटोरना
पर
बिन बटोरे रह जाती
ना किसी से कम
ना कोई
बात ऐसी।
मज़बूरिया
खूंटे से बढ़ी रहती
चाहती तोड़ना
पर
ना तोड़ पाती।
जीवनदायिनी
पाठशाला है वो
कमजोर तो नहीं .....?
विरासत में मिली।
दिन रात पिसती है
जो.........
चलना जिम्मेदारी
निभाती है वो ।
शोषण,उत्पीडन,दहेज़ से
घबराने लगी है
पंख फद्फड़ाने लगी है ।
भूत भविष्य वर्तमान है
जो............
सिसकती, छिनना चाहती है
बार-बार बलिदान
कर जाती है
वो................।
चाहती रचना नित नया
सदा से रचती आयी है वो
लक्ष्मी ]दुर्गा ,सरस्वती है
जो.............
कही पानी तो कही आग है
वो ......
नित नए सपनों के तार बुनती है
वो....
नवसृजन करती
वन्दनीय
नारी है जो............. नन्दलाल भारती २९.०८.२०१०
Sunday, August 29, 2010
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चाहती रचना नित नया
ReplyDeleteसदा से रचती आयी है वो
लक्ष्मी ]दुर्गा ,सरस्वती है
बहुत सुन्दर नंदलाल जी सही कहा नारी तो भगवती का रूप होती हैं
sunder kavita haen
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