सोचता हूँ ॥
सोचता हूँ बार-बार
विहस पड़े
मेरा भी मन
एक बार ।
व्यवधान खड़ा हो जाता है ,
कोंई---
उमंगें रुद देती है
अड़चने कोंई ना कोंई ।
चाहुओर मौत के
सामान बिकने लगे है ,
रोजमर्रा की चीजो में
जहर मिलाने लगे है ।
महंगाई है
भूख है
हवा प्रदूषित है ।
शासन है प्रशासन है
फिर भी
रिश्वतखोरी है
समता सम्पन्नता के वादे
तो बस
मुंहजोरी है ।
न्याय मंदिर है
दंड के विधान है
फिर भी अत्याचार है ।
बुध्द भावे की ललकार ,
फिर भी अनाचार है ।
चाहूओर मुश्किलों का घेरा
कहा से आये
मुस्कान
मोह,मद का बाज़ार
हावी सब है परेशान ।
खुश रहने के
उपाय विफल
हो जाते है
मुखौटाधारी मतलब का
दरिया पार कर जाते है
सच भारती
मै भी सोचता हूँ
बार-बार ,
विहस पड़े मेरा भी
मन एक बार....नन्दलाल भारती ..१4.०८.०१० (मोबाइल -०९७५३०८१०६६ )
Friday, August 13, 2010
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