Wednesday, August 11, 2010

आज जैसा

आज जैसा
आज जैसा पहले
तो ना था ,
हंस रोकर भी ,
बेख़ौफ़ सो लेता था ।
मौज में
सब का प्यार
सब में बाँट देता था
शायद
तब बचपन था ।
उम्र क्या बढ़ी ?
फ़र्ज़ के पहाड़ के
नीचे आ गया हूँ ।
तमाम मुश्किलों से
निपटने के लिए ,
उम्र का बसंत
हो चूका हूँ ।
उम्र बेंचकर भी ,
टूटे ख्वाब में
बसर कर रहा हूँ ,
रोटी आंसुओ से ,
गीली कर रहा हूँ।
अभाव की चिता पर भी
जी लेता हूँ ।
जुल्म का जहर
पी लेता हूँ ।
उम्मीदों के दम
दम भर लेता हूँ।
असी की धार पर,
चल लेता हूँ,
पेट की बात है
तभी तो
हर दंश झेल लेता हूँ ।
सच मानो भारती
स्वर्ग सी
दुनिया में
रहकर भी
नरक भोग लेता हूँ ...नन्दलाल भारती ११.०८.२०१०

1 comment:

  1. जीवन के सही अर्थ को दर्शाया है आपने
    वाकई मार्मिक कविता लिखी है नंदलाल जी
    वाह वाह वाह

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