परमपिता॥
हे परमपिता
तुम
उनके अभिमान को
और
मत संवारो ।
दोषी तो है ,
पर
माया की चमक में खो जाते है ,
आपा में कर्तव्य आदमियत
और
सब कुछ।
जिनमे ना भाषा
ना सद्भाना का भार है ।
वे निंदक अभिमानी तो है ,
वे शरीर और सिक्को के बल पर,
यकीन करते है।
और की मर्यादा से
क्या लेना-देना उनको ।
अभिमान करता है
गुमराह जिनको ।
वे सम्मान को
कहा जानते है ।
सब जानकर भी
कामना करता हूँ ,
उनके कल्याण की ।
हे परमपिता
चेतना का संचार कर दो
उनमे ।
आमजन प्रेम और बंधुत्व की
राह चल सके वे ।
चित पर
ज्ञान की
लगामे दो उनको ।
कसाई सा ह्रदय
ना चहरे पर
आँखे है जिनके ।
हे परमपिता
सूर्य सा तेज
वायु सा वेग
गंगा सा निर्मल
ज्ञान का सागर
प्रदान करो ।
हे परमपिता
विरोधियो को,
परास्त करने की कोई
कामना
नहीं है मेरी ।
शक्ति दो
परमपिता
ताकि
विरोधियो के बीच
निर्भय चल सकू।
जहा स्वाभिमान
आजाद-अनुराग का
अनुभव करता हुआ
विरोध की परवाह
किये बिना
भारती
निर्भय निरंतर
सद्कर्म के पथ
बढ़ता रहू।
हे परमपिता
इतनी शक्ति दो......नन्दलाल भारती... २२.०८.२०१०
Sunday, August 22, 2010
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